सागर। आचार्यश्री ने कहा सत्य ही परमेश्वर है, सत्यरूप परमेश्वर से ही यह सृष्टि चल रही है। सत्य परम धर्म है सत्य का प्रमाण है,सत्य से कीर्ति मिलती है। सत्य की अनुभूति होने पर शत्रु और मित्र को समान दृष्टि से देखा जाता है। यह संसार दुख स्वरूप है, सत्य की खोज सुख पाने के लिए मनुष्य करता है, पर इसकी खोज परपदार्थों में करना अज्ञानता है। आत्मा में जो सुख को खोजता है, वे ही सत्य के अन्वेषक हैं।
दुनिया में झूठे ताने बाने से निकलने के लिए सत्य ही एक सहारा है। सत्य की मंजिल पाने के लिए यथार्थ बोध आत्मा का सुख केवलज्ञान है। आचार्यश्री ने सत्य की मीमांसा करते हुए अनेक पौराणिक सूक्तियों के माध्यम से धर्म को समझाया तथा कहा कि अनंत आकाश को प्राप्त करने के लिए अनंतज्ञान केवलज्ञान के माध्यम से ही संभव है।
सत्य की प्रतीति होने पर असत्य का व्यवहार नहीं रहता। सत्य को रटने की नहीं उसे आत्मसात करने की आवश्यकता है, सत्य जब किसी के पास आ जाता है तब उसे कोई पराया नहीं लगता- फैले प्रेम परस्पर जग में, मोह दूर पर रहा करें।
अप्रिय कटुक कठोर शब्द नहीं मुख से कहा करें।
इन पक्तियों के माध्यम से आचार्यश्री ने हित मित वाणी की आवश्यकता भी प्रतिपादित की, पानी ही नहीं वाणी भी छानकर देना चाहिए। वाणी ही घर को स्वर्ग और घर को नर्क बना देती है, घर में रहने वाले कहते हैं यह घर काटे जा रहा है, सत्य के नजदीक होने से आनंद की अनुभूति होती है- सत्य को जैनाचार्यों ने चार प्रकार से वर्गीकृत किया है-
सत्यव्रत, सत्यधर्म, वचन गुप्ति, भाषा समिति आचार्यश्री ने कहा भाषा जग के कल्याण के लिए हितकारी,सुखकारी और संशय के निवारण हेतु साधु संतों द्वारा जनकल्याण की भावना से व्यक्त की जाती है, मौन शांति का समाधान है, पर झूठ के माध्यम से सच्चाई का कथन पाप है। साधु हमेशा कुमार्ग से हटाकर सन्मार्ग पर चलने के लिए संसारी प्राणी को थोड़े कठोर वचन भी कहत हैं, जगत और जीवन को उद्घाटित करने वाले प्राणी जगत के कल्याण हेतु औषधि के समान है, भाव से प्राणी रक्षा के निमित्त बोला गया झूठ भी सत्य माना गया है।
मनुष्य तीन कारणों से झूठ बोलता है- स्नेह, लोभ, भय स्नेह बस माताएं भय बस युधिष्ठर ने महाभारत के युद्ध में जो अश्वत्थामा हतो हता, नरो वा कुंजरो वां, रूप झूठ बोली थी, जब मनुष्य को मालूम पड़ता है कि यह आदमी झूठ बोलता है तो उसका प्रतिष्ठा गिरती है, उसका कोई विश्वास नहीं करता एक उदा. के माध्यम से कि एक बार एक व्यक्ति को वाहन की टक्कर लग गई, टक्कर थोड़ी लगी थी पर उसे मौका मिल गया, लोभ आ गया हाथ में खूब पट्टियां बांधकर मुआवजा लेने कोर्ट में पहुँचा जज ने पूछा हाथ टूट गया है तकलीफ बहुत है हाथ में।
हाँ मालिक हाथ बिल्कुल भी नहीं उठता, सारे काम बंद पड़े हैं मेरा बहुत नुकसान हो रहा है जज ने फिर कहा अच्छा ये बतलाओ कि पहिले कितने ऊपर तक हाथ उठ जाता था। उसने एक दम हाथ ऊपर करते हुए कहा कि इतना उठ जाता था और देखते ही देखते उसके झूठ का पर्दाफाश हो गया। फिर क्या था उसे कोर्ट से भगा दिया इस तरह से हम लोग जीवन में अपना काम बनाने के लिए तरह-तरह से झूठ का आलंम्बन लेते हैं, किंतु सत्य ऐसा धर्म है जो लौकिक जीवन में प्रतिष्ठा तो दिलाता ही है साथ में आत्म स्वरूप से भी परिचय कराता है।
प्रस्तुति- हेमचंद जैन
दुनिया में झूठे ताने बाने से निकलने के लिए सत्य ही एक सहारा है। सत्य की मंजिल पाने के लिए यथार्थ बोध आत्मा का सुख केवलज्ञान है। आचार्यश्री ने सत्य की मीमांसा करते हुए अनेक पौराणिक सूक्तियों के माध्यम से धर्म को समझाया तथा कहा कि अनंत आकाश को प्राप्त करने के लिए अनंतज्ञान केवलज्ञान के माध्यम से ही संभव है।
सत्य की प्रतीति होने पर असत्य का व्यवहार नहीं रहता। सत्य को रटने की नहीं उसे आत्मसात करने की आवश्यकता है, सत्य जब किसी के पास आ जाता है तब उसे कोई पराया नहीं लगता- फैले प्रेम परस्पर जग में, मोह दूर पर रहा करें।
अप्रिय कटुक कठोर शब्द नहीं मुख से कहा करें।
इन पक्तियों के माध्यम से आचार्यश्री ने हित मित वाणी की आवश्यकता भी प्रतिपादित की, पानी ही नहीं वाणी भी छानकर देना चाहिए। वाणी ही घर को स्वर्ग और घर को नर्क बना देती है, घर में रहने वाले कहते हैं यह घर काटे जा रहा है, सत्य के नजदीक होने से आनंद की अनुभूति होती है- सत्य को जैनाचार्यों ने चार प्रकार से वर्गीकृत किया है-
सत्यव्रत, सत्यधर्म, वचन गुप्ति, भाषा समिति आचार्यश्री ने कहा भाषा जग के कल्याण के लिए हितकारी,सुखकारी और संशय के निवारण हेतु साधु संतों द्वारा जनकल्याण की भावना से व्यक्त की जाती है, मौन शांति का समाधान है, पर झूठ के माध्यम से सच्चाई का कथन पाप है। साधु हमेशा कुमार्ग से हटाकर सन्मार्ग पर चलने के लिए संसारी प्राणी को थोड़े कठोर वचन भी कहत हैं, जगत और जीवन को उद्घाटित करने वाले प्राणी जगत के कल्याण हेतु औषधि के समान है, भाव से प्राणी रक्षा के निमित्त बोला गया झूठ भी सत्य माना गया है।
मनुष्य तीन कारणों से झूठ बोलता है- स्नेह, लोभ, भय स्नेह बस माताएं भय बस युधिष्ठर ने महाभारत के युद्ध में जो अश्वत्थामा हतो हता, नरो वा कुंजरो वां, रूप झूठ बोली थी, जब मनुष्य को मालूम पड़ता है कि यह आदमी झूठ बोलता है तो उसका प्रतिष्ठा गिरती है, उसका कोई विश्वास नहीं करता एक उदा. के माध्यम से कि एक बार एक व्यक्ति को वाहन की टक्कर लग गई, टक्कर थोड़ी लगी थी पर उसे मौका मिल गया, लोभ आ गया हाथ में खूब पट्टियां बांधकर मुआवजा लेने कोर्ट में पहुँचा जज ने पूछा हाथ टूट गया है तकलीफ बहुत है हाथ में।
हाँ मालिक हाथ बिल्कुल भी नहीं उठता, सारे काम बंद पड़े हैं मेरा बहुत नुकसान हो रहा है जज ने फिर कहा अच्छा ये बतलाओ कि पहिले कितने ऊपर तक हाथ उठ जाता था। उसने एक दम हाथ ऊपर करते हुए कहा कि इतना उठ जाता था और देखते ही देखते उसके झूठ का पर्दाफाश हो गया। फिर क्या था उसे कोर्ट से भगा दिया इस तरह से हम लोग जीवन में अपना काम बनाने के लिए तरह-तरह से झूठ का आलंम्बन लेते हैं, किंतु सत्य ऐसा धर्म है जो लौकिक जीवन में प्रतिष्ठा तो दिलाता ही है साथ में आत्म स्वरूप से भी परिचय कराता है।
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